सदियों से एक प्रश्न हमारे मानस को कुरेदता आया है— क्या रामायण और महाभारत केवल धार्मिक आख्यान हैं, या वे भारत की भूमि पर वास्तव में घटित हुए इतिहास के जीवंत दृश्य हैं?
क्या अयोध्या के राम और द्वारका के कृष्ण केवल पवित्र ग्रंथों की कल्पना हैं, या वे समय के उस पन्ने पर लिखी सच्चाई हैं, जिसे हमने आज तक श्रद्धा से सहेज रखा है और इतिहास से छिपा रखा है?
यह प्रश्न किसी उत्तर की माँग नहीं करता—यह बस आत्मा की एक पुकार है।
रामायण केवल एक कथा नहीं है।
जब आप सरयू के किनारे खड़े होकर अयोध्या की हवाओं को महसूस करते हैं, जब चित्रकूट की पहाड़ियों में पत्तों की सरसराहट सुनते हैं, तो वहाँ शब्द नहीं, स्मृतियाँ गूंजती हैं।
क्या यह केवल संयोग है कि तमिलनाडु के रामेश्वरम से श्रीलंका के समुद्रतट तक आज भी ‘रामसेतु’ के चिह्न मौजूद हैं?
क्या कोई कवि इतना सटीक भूगोल कल्पना में गढ़ सकता था, जहाँ वनवास का हर चरण, हर नदी, हर पर्वत एक वास्तविक स्थल से जुड़ा हो?
और महाभारत?
जिस युद्ध ने ‘धर्म’ और ‘राजनीति’ के मध्य की विभाजक रेखा को रेखांकित किया—क्या वह केवल एक प्रतीक था?
या फिर वास्तव में कुरुक्षेत्र की उस मिट्टी में किसी समय, हजारों रथ, घोड़े, हाथी और वीरों के रक्त की बूंदें गिरी थीं?
जब हम हस्तिनापुर जाते हैं, जब हम द्वारका के समुद्र में डूबी नगरी के पत्थरों को देखते हैं, तो इतिहास खुद हमारे सामने आकर खड़ा हो जाता है—गूँगा, पर गवाही देता हुआ।
आधुनिकता प्रमाण माँगती है।
लेकिन क्या हर सत्य को प्रमाणित किया जा सकता है?
क्या माँ की ममता, प्रेम की पीड़ा, या बलिदान की गरिमा को किसी प्रयोगशाला में मापा जा सकता है?
राम और कृष्ण, अर्जुन और रावण, द्रौपदी और सीता—ये केवल पात्र नहीं हैं। ये भारतीय आत्मा के स्तंभ हैं।
इतने गहरे कि इनका खंडन हमारी संस्कृति के मूल को हिला देगा।
आज जहाँ चाँद पर कॉलोनियाँ बसाने की चर्चा है और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस इंसान को पछाड़ने लगी है— वहीं मनुष्य के मन में कुछ सवाल आज भी उठते हैं:
“मैं कौन हूँ?”
“मैं क्यों हूँ?”
और तब गीता का वह स्वर कानों में गूंजता है—
“न जायते म्रियते वा कदाचित्…”
(आत्मा न जन्म लेती है, न मरती है…)
रामायण और महाभारत केवल ‘प्राचीन ग्रंथ’ नहीं हैं। वे हमारे समाज की चेतना में बसी हुई अनुभूतियाँ हैं।
हर बार जब कोई अन्याय के विरुद्ध खड़ा होता है—वहाँ राम हैं।
हर बार जब कोई कृष्ण की तरह भ्रमित अर्जुन को राह दिखाता है—वहाँ गीता का उपदेश है।
हर बार जब कोई स्त्री अपमान का प्रतिकार करती है—वहाँ सीता और द्रौपदी है।
हो सकता है, इतिहासकार अब भी शंका करें। हो सकता है, वैज्ञानिक अब भी प्रमाण खोजें। लेकिन भारत के जनमानस में आज भी राम और कृष्ण बसते हैं।
जो युगों से जिया गया हो, वह केवल लिखा नहीं बल्कि वह घटित भी होता है।
इसलिए सवाल यह नहीं कि रामायण और महाभारत हुए थे या नहीं… सवाल यह है—क्या हम आज भी उन जैसे जीवन जीने का साहस रखते हैं?