भारत वह देश है जहाँ की प्राचीन शिक्षा प्रणाली में वेदों, उपनिषदों, रामायण और महाभारत जैसे अद्वितीय ग्रंथ पढ़ाए जाते थे। फिर भी आज हम अपने ही ज्ञान की परंपरा से कटे हुए हैं। क्यों? हम भारतीय अपने प्राचीन ग्रंथों को क्यों नहीं पढ़ते हैं? आइए इस सवाल पर विचार करते है।
इसका पहला कारण है– हिंदू धर्म में एक नहीं, सैकड़ों ग्रंथ हैं – और उनमें भी अलग-अलग संस्करण। रामायण को ही लीजिए – वाल्मीकि रामायण, तुलसीदास का मानस, दक्षिण भारत की कंब रामायण – सबका कथ्य थोड़ा अलग है, भाव भी अलग-अलग है। 300 प्रकार के रामायण हैं, इसके अलावा चार वेद हैं, पुराण भी कई हैं, 108 उपनिषद हैं। हमारे प्राचीन ग्रंथ इतने व्यापक है कि एक तो यह आसानी से समझ में नहीं आते और दूसरी ओर अनेक संस्करण भ्रम भी पैदा करते हैं – कौन सा पढ़ें, किसे सही मानें?
दूसरा कारण है – अंग्रेजी शिक्षा और औपनिवेशिक सोच। 1835 में मैकॉले ने एक ऐसी शिक्षा नीति बनाई, जिससे भारतीय अपनी ही संस्कृति को तुच्छ समझने लगे। हमें शेक्सपियर तो पढ़ाया गया, पर गीता नहीं। हम सुकरात,अरस्तु को तो बड़े चाव से पढ़ते हैं, वराहमिहिर और कणाद को नहीं। अंग्रेजों की 300 साल के शासन ने हमारी मानसिकता को भी बदल दिया है। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि आज अगर कोई सुकरात, अरस्तु, शेक्सपियर के बारे में किसी सभा में बात करता है तो लोग उसे विद्वान् और ज्ञानी समझते हैं लेकिन अगर कोई वराहमिहिर, कणाद जैसे प्राचीन ऋषि वैज्ञानिक का जिक्र भी करता है तो उसे लोग रुढ़िवादी, कट्टर, फंडामेंटलिस्ट न जाने क्या क्या कहने लगते हैं। लोग पुराणों, उपनिषदों, रामायण, महाभारत जैसे प्राचीन ग्रंथों को यह कह कर भी नकार देते हैं कि इसका हमारे आज के जीवन में कोई महत्त्व नहीं है। प्राचीन ग्रंथों के दर्शन और सिद्धांत आज चूक गए हैं। लेकिन ऐसा बिलकुल नहीं है।
क्या आपको सही में लगता है कि वर्तमान में इन ग्रंथों की कोई उपयोगिता नहीं है।
नहीं, इसका कारण है भाषा और संस्कृति से दूरी। भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं होती, वह संस्कृति और चेतना की वाहक भी होती है। जब हम अंग्रेज़ी में सोचने लगे, तो हम अंग्रेज़ों की तरह सोचने भी लगे – और धीरे-धीरे हमें अपने ही दर्शन, साहित्य और परंपरा से दूर होने लगे। अधिकांश भारतीय न तो इन ग्रंथों को पढ़ते हैं न ही समझते हैं। जो भी जानते हैं बस सुनकर और देखकर ही जानते हैं। वो तो भला हो रामानंद सागर और बी.आर. चोपड़ा जैसे निर्देशकों का कि 80 के दशक के बच्चे, जो आज की कार्यरत युवा पीढ़ी है, वह रामायण और महाभारत के पात्रों को कम से कम जानते तो हैं। हाँ, लेकिन पढ़ते नहीं है। हमने वेदों को "मिथक", उपनिषदों को "कठिन" और गीता को "सिर्फ धार्मिक पुस्तक" मान लिया – क्योंकि हमने उसे अपनी भाषा में पढ़ने और समझने की कोशिश ही नहीं की।
तीसरा कारण है – आधुनिक जीवन की व्यस्तता। आज का जीवन तेज़, व्यस्त और लक्ष्य-केंद्रित है। सुबह से रात तक की दौड़ में हमारा ध्यान केवल “करने” पर है, “होने” पर नहीं। इसी बीच, एक और परिवर्तन चुपचाप हमारे जीवन में आया – अंग्रेज़ी भाषा और संस्कृति का प्रभाव। हम जितने अधिक अंग्रेज़ीदां हुए, उतने ही अपनी जड़ों से दूर होते गए।
हमारा प्राचीन ज्ञान – वेद, उपनिषद, गीता, रामायण, योगसूत्र – अब हमारे शेल्फ पर पड़े सजावटी ग्रंथ बनकर रह गए हैं। प्रश्न उठता है – ऐसा क्यों हुआ?
आज का जीवन लगातार चलने वाली मशीन की तरह है – मीटिंग्स, टारगेट, सोशल मीडिया, स्क्रीन्स। ध्यान, अध्ययन, आत्मचिंतन जैसे शब्दों को 'गंभीर' या 'पुराने ज़माने की बातें' समझा जाने लगा है।
ऐसे में कोई व्यक्ति क्यों गीता के श्लोकों में "निष्काम कर्म" ढूंढ़ेगा, जब उसकी दिनचर्या "परिणाम-केंद्रित" हो चुकी है? अंग्रेज़ी भाषा ने हमें वैश्विक मंच पर स्थान दिलाया, लेकिन इसके साथ यह भी हुआ कि हमने अपने देश की भाषाओं को 'गाँव-देहात की भाषा' मानना शुरू कर दिया।
अब जब भाषा बदल गई, तो साहित्य और परंपरा की समझ भी कमजोर हो गई। परिणाम यह हुआ कि “धर्मनिरपेक्ष” होने के चक्कर में हमने अपने ही प्राचीन ग्रंथों से इतनी दूरी बना ली और हम अपने जड़ों से ही कट गए। हमारी प्राचीन संस्कृति की जड़ें इन्हीं प्राचीन ग्रंथों में हैं और अंग्रेजों ने उस जड़ को खोद डाला और आजादी के बाद हमने उसको सींचने के बजाय उसमें मट्टा डालने का काम किया।
एक युवा जो अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़ा है, उसे “कुरुक्षेत्र”, “ब्रह्म”, “धर्म”, “ऋग्वेद, “उपनिषद” जैसे शब्द केवल परीक्षाओं में पूछे जाने वाले 'जनरल नॉलेज' के टॉपिक लगते हैं – न कि जीने की दृष्टि। आज की व्यस्त जीवन शैली में ज्ञान का अर्थ भी बदल गया है। आज ज्ञान स्कूल और कॉलेज के पाठ्यक्रम को रटना और परीक्षा पास करके नौकरी लेना या व्यवसाय करना भर रह गया है। शायद मैकाले ने भारतीयों को “ब्राउन साहिब”(रंग से भारतीय, सोच से अंग्रेज़) बनाने का जो सपना देखा था, वह कुछ हद तक पूरा हो गया है, लेकिन संभवतः NDA की सरकार मैकाले के इस सपने पर ब्रेक लगाती हुई दिखाई दे रही है। पिछले 15 सालों में NDA की सरकार ने कुछ ऐसे ज़रूरी काम किए हैं, जिससे आज विश्व भी कम से कम इसके बारे में बात तो कर रहा है। “अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस” के रूप में प्राचीन योग परंपरा से विश्व का परिचय करना इसी NDA सरकार की देन है। सबसे बड़ी बात NDA सरकार का IKS (Indian Knowledge System) का प्रस्ताव स्वागतयोग्य और प्रशंसनीय है। NDA सरकार के इस कदम से कम से कम स्कूल और कॉलेज स्तर पर आज की पीढ़ी जुड़ तो सकेगी।